Tuesday, January 29, 2019


मिर्जा गालिब और मिर्जापुर

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वो सर्दियों की एक शाम थी। शायद 2015 की। मशहूर मायथो लेखक देवदत्त पटनायक का क्लार्क्स आमेर, जयपुर में एक सेशन था जिसका नाम था - The Very Indian Approach About Management. विषय मुझे आकर्षक लगा सो मैं भी पहुंच गया। देवदत्त ने एक बहुत शानदार प्रेजेंटेशन दिखाई। उसकी एक स्लाइड में बहुत करीने से लगी यूरोपियन डिनर प्लेट थी। एक बड़ी प्लेट, उसपर एक छोटी प्लेट, सबसे ऊपर एक सूप बाउल, दो चम्मच, छूरी कांटे आदि। देवदत्त ने बताया कि यूरोपीय शालीन परिवार खाने में तीन कोर्स लेते हैं। स्टार्टर, मेन कोर्स और डिजर्ट।

वे स्टार्टर यानी सूप से शुरू करते हैं। सो सबसे ऊपर सूप का बाउल। जब तक सूप पीया जाता है, दूसरी कोई चीज नहीं परोसी जाती। सूप खत्म होने पर उसकी बाउल और चम्मच हदा दी जाती है। फिर मेन कोर्स आता है। और अंत में डिजर्ट। जब एक खाना पूरा न हो, दूसरा नहीं परोसा जाता। इस तरह कुछ आधे से एक घंटे में पूरा होता है एक शानदार यूरोपीय डिनर।

इसके बाद उन्होंने इंडियन थाली दिखाई। पूरी तरह भरी, करीब 12-15 व्यंजनों वाली और बताया कि हमारे यहां सबकुछ एक बार में ही परोस दिया जाता है और सब जल्दी-जल्दी खा लेते हैं।

इसके बाद देवदत्त ने एक यूरोपीय करंसी नोट दिखाया। इसपर केवल एक भाषा थी। अंग्रेजी। इसके सिवाय कोई भाषा का उपयोग नहीं। फिर आया भारतीय नोट। कुल जमा 18-19 भाषाएं। ब्रेल अलग से।

देवदत्त का प्वाइंट था कि हमारे यहां विविधता सर्वोपरि है जो हर जगह देखने को मिल जाती है। लेकिन क्या इतनी ज्यादा विविधता समेटना और समेटकर आगे बढ़ते रहना आसान है? क्या यह विकास में कहीं दिक्कत तो पैदा नहीं करती?

सेशन में तो कुछ ज्यादा मैं नहीं बोल पाया लेकिन अभी कुछ दिन पहले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान मीडिया टेरिस पर देवदत्त पटनायक से इस विषय में खुलकर बात हुई। मैंने उनसे कहा कि शायद हमारे देश में हमारे लिए विविधता ही पहली और आखिरी शर्त है, जिसका बना रहना जरूरी है। एक बार हम विकास से समझौता कर सकते हैं लेकिन अपनी विविधता पर जरा भी आंच नहीं आने दे सकते। यही हमारे देश की सबसे बड़ी खूबसूरती है जो बनी रहनी चाहिए।

प्रसिद्ध मॉयथोलोजी लेखक देवदत्त पटनायक के साथ।


इसपर देवदत्त ने भी हामी भरी। उनका कहना था कि मेरी बात सही है। इसीलिए जिन यूरोपीय देशों को वे प्रेजेंटेशन में दिखाते रहे हैं, उनके यहां के कास्ट सिस्टम और रेसिज्म की चर्चाएं कभी कम नहीं होती। और इसके विपरीत हमारे यहां विविधता को सभी सहर्ष, शिरोधार्य करते हैं।

ये अलग बात है कि कभी-कभी जानबूझकर या अंजाने में हुए विविधता को स्वीकार न करके कुछ अतिवादी उसे सीधे-सीधे संस्कृति से जोड़ देते हैं और बात राष्ट्रद्रोह के मुकदमों तक पहुंच जाती है। यह कोई सरकारी षड़यंत्र हो सकता है लेकिन देश की दैनिक आदत या स्वभाव नहीं है।

कुछ दिन पहले एक साथी ने फोन पर एक दूसरे साथी के व्यवहार की शिकायत करते हुए कह दिया कि हमारे यहां तो आजतक ऐसी बातें किसी न नहीं कीं। मैं उनकी बात ध्यान से सुनता रहा। वे शिकायत करते रहे। बात कपड़े पहनने और बैठने के अंदाज तक आ निकली। मुझसे रहा नहीं गया। मुझे कहना पड़ा कि प्रिय बंधु। अगर एक टीम के वरिष्ठ होने के नाते आप इतनी सी विविधता बर्दाश्त नहीं कर सकते तो माफ करें आप लीडर कभी नहीं बन सकते। 

हमें किसी के खुद से जरा सा अलग होने पर इतनी आपत्ति है तो हम शायद अकेले चलने के ही लायक हैं। इसलिए कृपया करके विविधता को स्वीकारना सीखिए। सामने से सवाल आया- क्या आप भी करते हैं? मैंने कहा बिल्कुल।

सच कहूं तो मैं विविधता का आनंद लेता हूं। इसीलिए मिर्जा गालिब और मिर्जापुर दोनों को पसंद करता हूं। एक व्यक्ति के रूप में अपने आसपास के सभी रंगों, भाषाओं का बराबर सम्मान करता हूं। हां, दफ्तरी कामकाज में दर्जनों लगड़पेंच चलते रहते हैं। क्योंकि हम सबके एक छत के नीचे आकर जुड़ने का साध्य हमारा काम है, सो वो सबसे पहले। उसके बाद सबका, सब तरीके से स्वागत।

यही बात मुझे भारतीय होने के नाते पूरे देश से जोड़ती है और पूरे देश को मुझसे। किसी शायर ने कहा है -

चमन में मुख्तलिफ फूलों से ही आती है रौनक,
हमीं हम हैं तो क्या हम हैं, तुम्हीं तुम हो तो क्या तुम हो...
धन्यवाद.

Tuesday, January 1, 2019

मां...एक मुकम्मल दुनिया की विदाई...

3 दिसंबर 2018... सुबह के नौ बजे। मेरी मां मुझे हमेशा के लिए छोड़कर चली गई। एक पूरी दुनिया थी जो उसके साथ ही चली गई। मेरे जीवन में ऐसा कोई पल शायद ही हो जिसमें मेरी मां नहीं होती थी। पर वो चली गई। अब...

तमाम दुनियावी संस्कार करने थे। सो किए। 14 दिन अपने पैतृक गांव रहा जहां परिवार और भाइयों ने सभी कार्यों में भरपूर सहयोग किया। उन्हीं के कारण मरणोपरांत होने वाली मेरी मां की सारी क्रियाएं संपन्न हो पाईं और 15 दिसंबर को मैं जयपुर, घर आ गया।


पर घर तो अब पहले जैसा नहीं रहा। ये तो पूरा बदल गया है। कहने को मां अपनी चारपाई पर सिमटी लेटी रहती थी। लेकिन वो तो हर जगह थी। धूप, हवा, मंदिर से आती अगरबत्ती की खूश्बू की तरह हर जगह पूरे घर में। सुबह की पहली चाय और अखबार पढ़ते वक्त चल रही बातचीत में, नहाने के लिए पड़ रही डांट में, "अभी तक फल नहीं खाए... इसीलिए तो इतना कमजोर हो गया है" वाले उलाहने में, "खाना खाते वक्त तो फोन छोड़ दिया कर" वाली सीख में, बेटे को ज्यादा डांटने पर मेरी ही खिंचाई में, ऑफिस में आए फोन और एक मिनट बात करने के बाद "आवाज नहीं आ रही, घर आके बात करना" वाली अनदेखी में और रात को अनवरत आठ साल से बिना डोरबेल बजाए बाइक या कार की आवाज सुनते ही अपने आप खुलते दरवाजे में.... मां तो हर बात में थी। और अब तो लगता है कि ये घर नहीं मां की गोद ही था... जो अब काटने को दौड़ रहा है।

यहां आने के दो-चार दिन तक तो लगता रहा कि मां कहीं गई है... आ जाएगी। क्योंकि वो अक्सर जाती थी। लेकिन लौटकर आने के लिए। इस बार वो नहीं आई। अपने हाथों से उसके सारे अंतिम कार्य कर चुका हूं लेकिन यकीन नहीं आ रहा कि मां नहीं आएगी।

रिश्तेदारों की औपचारिकताएं धीरे-धीरे पूरी हो रही हैं। परिजन लगातार फोन पर "बच्चों और पिताजी का ख्याल रखना" कि हिदायतें दे रहे हैं। लेकिन अब बहुत कुछ है जो बदल गया है... मां के नहीं रहने से बिना किसी इत्तला के मैं बड़ा हो गया हूं। क्योंकि बच्चा तो सिर्फ मां के लिए था। पिता तो कब से कहते आ रहे हैं- अपने जूते का साइज एक हो गया है... अब बेटा नहीं दोस्त है तू। लेकिन मां के लिए ऐसी कोई कहावत नहीं बनीं। मां के लिए मैं ताउम्र बच्चा ही रहा। तभी तो मिलती थीं घर से निकलते वक्त ध्यान से जाना कि हिदायत, बाहर होने पर खाना वक्त पर खा लेना की नसीहत, सर्दी में कंबल, गर्मी में ठंडा दूध, बीमार होने पर दुआ-दवा, दुनियादारी सिखाने की सलाह, पैसे बचाने की कला, हर त्योहार के सारे चाव, हर व्रत-पूजा पाठ के नियम, बच्चों की प्यारी गोद, मेरी या उनकी मां की हर डांट से आगे खड़ी मजबूत ढाल... सब मां ही तो थी।

ये तमात नसीहतें, हिदायतें, सहारा, किनारा, ढाल... सब तुम ही तो थी मां...