Monday, April 6, 2015

क्या करें ऐसे हाई-फाई लोगों का...

दो वाकये पढ़िए...

पहला. वट्सअप का एक वीडियो. किसी युवती का जो देर रात को घर जाने के लिए कहीं से कैब हायर करती है. कैब ड्राइवर से डील होते ही वो अपने मोबाइल से उसकी व कैब की नंबर सहित कुछ फोटो लेती है. ड्राइवर पूछता है-मैडम. अापने मेरी और गाड़ी की फोटो क्यों ली? युवती जवाब देती है- बुरा मत मानना भइया. मैंने तुम्हारी और गाड़ी तस्वीरें अपने पापा को वट्सअप पर भेज दी हैं. अगर कुछ गड़बड़ करोगे तो कम से कम तुम पकड़े तो जाओगे. इसके बाद भी युवती रास्ते में आए कुछ लैंडमार्क्स की फोटो क्लिक कर रही थी. मतलब साफ था कि वो कहां-कहां तक पहुंच गई, ये लगातार उसके पापा को पता चल रहा था.

दूसरा वाकया. एक मित्र ने फेसबुक पर आया उसके किसी मित्र का फोटो दिखाया. इस फोटो में वो भाई बिजली का बिल भराने के लिए लाइन में खड़ा है. साथ में टेक्स्ट लिखा है- बिल की लाइन में पिछले 2 घंटे से...

दोनों चीजें देखकर मुझे बड़ी हैरानी हुई.

पहले वाकये वाली युवती वट्सअप को हथियार की तरह इस्तेमाल करती है और दूसरे वाकये वाले महाशय इंटरनेट के एक टूल का इस्तेमाल यह बताने में कर रहा है कि वो कितना परेशान है.
तकनीक एक के लिए हथियार और दूसरे के लिए बेकार. और असल में बेकार भी नहीं. बस उसका आधा-अधूरा इस्तेमाल. इस बेवकूफ को कोई समझाए कि इसी इंटरनेट से वो घर बैठे बिना परेशानी बिल भरा सकता है...

इंटरनेट के इस्तेमाल को देखें तो लगेगा कि जैसे किसी इंसान को अलादिन का चराग मिल जाए और वो उससे पकोड़े तल के लाने की ख्वाहिश कर दे.

जनवरी 2015 में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में आए मशहूर टीवी एंकर रवीश कुमार ने एक कार्यक्रम में इंटरनेट की बड़ी अच्छी व्याख्या की थी. बकौल रवीश जैसे हम इस दुनिया में व्यवहार करते हैं, वैसे ही इंटरनेट की आभासी दुनिया में. हमारी जैसी रिजर्वेशंस यहां हैं, नेट पर वैसी ही रहेंगी.


आम दुनियादारी में आपको गॉसिप, मौज-मजा, हंसी मजाक पसंद है तो आप नेट पर वही खोजेंगे. आप अच्छे पाठक हैं तो किताबें, लेखक हैं तो ब्लाग्स, सोशल बग हैं तो एफबी या ट्वीटर और कामुक टाइप के इंसान हैं तो सविता भाभी खोजेंगे. आप अंधविश्वासी हैं तो फेसबुक वट्सअप पर भी किसी आड़े-तिरछे सिंदूर लगे पत्थर को न जाने कौन से बालाजी बताकर एक लाइक/शेयर=एक आशीर्वाद जैसे जुमले गढ़ देंगे. और सिर्फ नेट ही क्यों? एक लाख किताबों से सजी लाइब्रेरी में भी हमारी सोच इसी वरीयता से चलेगी.

बस इसी वरीयता पर आधारित है हमारा इंटरनेट ज्ञान. हमने भेड़चाल की तरह दुनिया को देख-देखकर वट्सअप, फेसबुक आदि सारी चीजें सीख लीं, लेकिन आधी-अधूरी. तो नतीजा सामने है. बिजली बिल भराने की लाइन मेंं दो घंटे से खड़ा चंदूलाल वट्सअप और फेसबुक पर अपनी फोटो शेयर करता है

हाल-ए-फेसबुक देखिए... अगर फेसबुक को एक देश मानें और इसके यूजर्स को नागरिक, तो ये दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश होगा. जल्द ही हो सकता है पहला भी बन जाए. मार्क जकरबर्ग ने अपने कॉलेज फ्रेंडस से कनेक्ट होने के लिए ये मॉडल बनाया था और देखते ही देखते यूजर्स एक दूसरे को खोज-खोजकर कनेक्ट होते गए. अब हालत ये है कि लोग फेसबुक का इस्तेमाल यह बताने में कर रहे हैं कि उन्होंने ड्राइंग रूम में किस रंग के पर्दे लगाए हैं या उनका सबसे छोटा बेटा सोते हुए कैसा लगता है. रोज बनियान बदलना जरूरी हो न हो, प्रोफाइल पिक्चर जरूर बदली जानी चाहिए. अजीब लगता है ये देखकर कि कैसे विचार, अभिव्यक्ति, सूचना, संदर्भ और शेयरिंग के इतने सॉलिड मीिडयम का हमने रायता फैला दिया...
एफबी, वट्सअप या ट्वीटर कैसे हमारी जिंदगी बदल सकते हैं... इसपर बात अगली बार...

Thursday, April 2, 2015

हम...
यानि हम लोग... वी, द पीपल...यानि कौन?


हम हमेशा बदलते रहते हैं.
जगह, मौके, अवसर, समय, स्थान आदि के अनुसार. सफर में मुसाफिर, तीर्थ में तीर्थयात्री, मंच के सामने बैठे तो दर्शक, मंच पर हुए तो परफाॅर्मर, सुन रहें हैं तो श्रोता, बोल रहें हैं तो वक्ता, कुछ कर रहे हैं तो कर्ता, नहीं कर रहे तो भीड़, नियम में रहें तो नागरिक, नियम तोड़ दें तो अपराधी, केस चल रहा है तो मुल्जिम, आरोप सािबत हुआ तो मुजरिम, फिर सजायाफ्ता, बेघर हैं तो शरणार्थी, धरने पर हैं तो धरनार्थी, पढ़ रहें हैं तो विद्यार्थी, पढ़ा रहे हैं शिक्षार्थी, जिंदा हैं तो इंसान, मर गए तो अर्थी... यानी पैदा होने से मरने तक हम हमेशा किसी न किसी वर्ग की तरह पुकारे जाते हैं.

हम... यानि वी द पीपल बहुत सारी खुली किताबों जैसे हैं. हर आदमी अपने आप में एक कहानी, एक हीरो, एक मिसाल की तरह है जो चाहता है कि उसे, बस उसे ही सुना, पढ़ा, कहा और समझा जाए... लेकिन इसके लिए वो क्या कहे, लिखे और समझाए... ये किसी को नहीं पता. कोई रिक्शेवाला भी फुर्सत में हो तो आपको बड़ी शानदार कहानियां सुनाएगा... परिवार के लिए दी अपनी कुर्बानियों की, अपनी जिंदगी की और जाने क्या-क्या...क्योंकि उसकी जिंदगी में उससे बड़ा हीरो उसे कोई मिला ही नहीं...

हम...यानि वी द पीपल...हमारी सबसे बड़ी समस्या हम खुद ही हैं... सुनकर अटपटा जरूर लगेगा... लेकिन सच यही है. हमें सुधरी हुई साफ सुथरी दुनिया चाहिए. लेकिन हमें गंदे रहने पर कोई न टोके. हमें करप्शन से मुक्ति चाहिए, लेकिन हम न घूस देना छोड़ेंगे न लेना. हमें अपनी बहन-बेटियां सुरक्षित चाहिएं, भले ही पास से निकलती षोड़शी को हम कितनी भी बुरी तरह ताड़ें. हमें भगतसिंह चाहिए, लेकिन पड़ोसी के घर में. हमें सुबह के अखबार से रात की काॅफी तक सारी चीजें टाइम पर चाहिए, भले ही हम रोज आॅफिस लेट जाते हों. हमें सारे राइट्स चाहिएं, भले ही ड्यूटीज का डी भी हम भूल चुके हों. हमें सड़क पर ट्रैफिक सेंस चाहिए, भले ही हमने हेलमेट तक न लगाया हो. पूरा देश हमारे लिए सुधर जाए और हमें करवट भी न बदलनी पड़े.

हम...यानि वी द पीपल... थोड़े अजीब भी हैं. थोड़े नहीं बहुत अजीब. दरवाजे पर वेलकम का डोर स्टेप रखते हैं और चौखट के पीछे बांस का लट्‌ठ. हमारे पास हर समस्या का समाधान होता है, बस समस्या दूसरे की होनी चाहिए. हमें खुद नहीं पता कि हम किस बात से ज्यादा परेशान हैं...इंडिया के मैच हारने से या पड़ोसी के नए बड़े एलईडी से. हम अखबार की कीमत 25 पैसे बढ़ने पर बेचैन हो जाते हैं लेकिन सिगरेट किसी भी दाम पर खरीद कर फूंक सकते हैं. हम 3500 रुपए के जूते खरीद सकते हैं, 200 रुपए की किताब नहीं. हमें अपने महीनों से बेकार पड़े हेलमेट या ट्रैवल बैग को तब बहुत मिस करते है जब पड़ोसी उसे दो दिन के लिए मांग कर ले जाता है.

हम... यानि वी द पीपल...बहुत बड़े आविष्कारक हैं...लेकिन जुगाड़ के. मोबाइल किसी ने भी बनाया हो, मिस कॉल हमने बनाई है. घड़ी किसी ने भी बनाई हो, इंडियन स्टैडंर्ड टाइम यानि फिक्स टाइम से एक-दो घंटे  लेट पहुंचने का ठप्पा हमने बनाया है.

हमारे बारे में और बहुत कुछ... अगली बार.