Friday, February 15, 2019


Wittiness यानि व्युतपनमति यानि हाजिरजवाबी के बारे में मेरा एक लेख जो भास्कर ब्लॉग में छपा... 


Friday, February 8, 2019

मॉब लींचिंग, मनी लॉन्ड्रिग, नेपोटिज्म और हम

देश के उन सभी सक्रिय नेताओं, अभिनेताओं और न्यूजमेकर्स का धन्यवाद जिनके जाने-अंजाने कृत्यों की वजह से हमें रोज रोज नए शब्द सीखने को मिल रहे हैं।



सर्जिकल स्ट्राइक, मनी लॉन्ड्रिग, नेपाेटिज्म (भाई भतीजावाद), मॉब लींचिंग, चिटफंड, क्राउड फंडिंग, एडम टीजिंग, रेसिज्म, डिमोनेटाइजेशन, डोपिंग आदि आदि। भला हो इन न्यूजमेकर्स का जिन्होंने अंग्रेजी अखबारों में काम कर रहे मेरे भाइयों को रोजगार दे रखा है। ये रोज कोई नया कांड करते हैं और अखबार-मीडिया के लोगों को उसे कवर करने के लिए नया शब्द खोजना पड़ता है। शर्तिया यह कोई आसान काम नहीं है। 

शायद नेताओं में भ्रष्टाचार के नए-नए रिकॉर्ड बनाते समय यह विचार भी मन में रहता हो- अरे ये नहीं, कुछ नया करो... ये तो लालू जी कर चुके। अरे भई कोई भारी-भरकम नाम होना होना चाहिए। 

कल ही बॉलीवुड की मणिकर्णिका यानि झांसी की रानी ने भारतीय सिनेमा में नेपोटिज्म के खिलाफ मुहिम छेड़ने का अपना एलान दोहराया। यानि नए शब्द निकालने में हमारा बॉलीवुड भी पीछे नहीं है। देखा जाए तो सिनेमा और टीवी तो पॉलिटिशयन को लीड ही कर रहा है।

थोड़ा इतिहास में जाएं तो 1994 में दूरदर्शन ने डेली सोप्स का कंसेप्ट शुरू किया था। तब दूसरे चैनल इतने प्रचलित या यूं कहें सबकी पहुंच में नहीं थे। बस... तभी से हमारे सर्वहारा समाज को नए-नए शब्द मिलने शुरू हो गए थे। असल में हमें पता चला- अच्छा, हमारे घर-परिवार-समाज में ये सब भी होता है। यानि पोस्ट और प्री मैरिटल अफेयर्स, डीएनए टेस्ट, अबॉर्शन, मिलियन और बिलियन पाउंड आदि-आदि।

दूरदर्शन पर उस जमाने में 780 एपिसोडस के साथ सबसे लोकप्रिय सीरियल शांति का तो प्लॉट ही नाजायज संतान पर आधारित था। इसके बाद इतिहास, स्वाभिमान जैसे कई सीरियल्स भी आए और दोपहर को पूरे घर का काम करने के बाद शांति से सोने वाली हमारी मां, चाचियां, ताइयां, मामियां और भाभियां अब अशांति से इन्हें देखने लगीं। कोई क्राइम के आंकड़ों में सिद्धहस्त साथी अगर रिसर्च करे तो उसे मिलेगा कि शायद घरेलू हिंसा और अलगाव के बहुत से मामलों में इन वर्षों में तगड़ा इजाफा आया हो।

बहरहाल... अब मुद्दे पर आते हैं। शब्दों की इस फैक्ट्री से आने वाले सारे शब्दों को एक जैसा ट्रीटमेंट नहीं मिलता। यानि कुछ शब्दों की उम्र ज्यादा नहीं होती। ये शब्द आते हैं और एक दो दिन ध्यान आर्कषित करने के बाद खो जाते हैं।

जैसे डिवलपमेंट, ईज ऑफ डूइंग बिजनेस, हैप्पीनेस इंडक्स, स्टारवेशन (भुखमरी), सोशल इनजस्टिस, फार्मर सुसाइड, इव टीजिंग, रैगिंग, चाइल्ड अब्यूजिंग आदि आदि। पता नहीं क्यों इन शब्दों पर ज्यादा दिन तक कोई बात नहीं करता। असल में जल्दी से कोई बात ही नहीं करता। देश में क्राइम या भ्रष्टाचार में हमारा कौनसा नंबर है, इसके बारे में सत्ता पक्ष से ज्यादा रिसर्च विपक्ष करता है। लेकिन इसका समाधान क्या है इसपर कोई बात नहीं होती।

इसलिए देश को नए नए शब्दों का ज्ञान लाभ देने वाले हे न्यूजमेकर्स... हम पर दया कीजिए। हमें समस्याओं को परिभाषित करने वाले नए-नए शब्द नहीं, उनके समाधान चाहिए। अगर आपके पास हैं तो दे दीजिए। वरना प्लीज हमारे धूल, धुंए, ट्रैफिक, पॉल्यूशन, गड्‌ढे वाली सड़कों से थके दिल, दिमाग और शरीर को और तनाव मत दीजिए।


Tuesday, January 29, 2019


मिर्जा गालिब और मिर्जापुर

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वो सर्दियों की एक शाम थी। शायद 2015 की। मशहूर मायथो लेखक देवदत्त पटनायक का क्लार्क्स आमेर, जयपुर में एक सेशन था जिसका नाम था - The Very Indian Approach About Management. विषय मुझे आकर्षक लगा सो मैं भी पहुंच गया। देवदत्त ने एक बहुत शानदार प्रेजेंटेशन दिखाई। उसकी एक स्लाइड में बहुत करीने से लगी यूरोपियन डिनर प्लेट थी। एक बड़ी प्लेट, उसपर एक छोटी प्लेट, सबसे ऊपर एक सूप बाउल, दो चम्मच, छूरी कांटे आदि। देवदत्त ने बताया कि यूरोपीय शालीन परिवार खाने में तीन कोर्स लेते हैं। स्टार्टर, मेन कोर्स और डिजर्ट।

वे स्टार्टर यानी सूप से शुरू करते हैं। सो सबसे ऊपर सूप का बाउल। जब तक सूप पीया जाता है, दूसरी कोई चीज नहीं परोसी जाती। सूप खत्म होने पर उसकी बाउल और चम्मच हदा दी जाती है। फिर मेन कोर्स आता है। और अंत में डिजर्ट। जब एक खाना पूरा न हो, दूसरा नहीं परोसा जाता। इस तरह कुछ आधे से एक घंटे में पूरा होता है एक शानदार यूरोपीय डिनर।

इसके बाद उन्होंने इंडियन थाली दिखाई। पूरी तरह भरी, करीब 12-15 व्यंजनों वाली और बताया कि हमारे यहां सबकुछ एक बार में ही परोस दिया जाता है और सब जल्दी-जल्दी खा लेते हैं।

इसके बाद देवदत्त ने एक यूरोपीय करंसी नोट दिखाया। इसपर केवल एक भाषा थी। अंग्रेजी। इसके सिवाय कोई भाषा का उपयोग नहीं। फिर आया भारतीय नोट। कुल जमा 18-19 भाषाएं। ब्रेल अलग से।

देवदत्त का प्वाइंट था कि हमारे यहां विविधता सर्वोपरि है जो हर जगह देखने को मिल जाती है। लेकिन क्या इतनी ज्यादा विविधता समेटना और समेटकर आगे बढ़ते रहना आसान है? क्या यह विकास में कहीं दिक्कत तो पैदा नहीं करती?

सेशन में तो कुछ ज्यादा मैं नहीं बोल पाया लेकिन अभी कुछ दिन पहले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान मीडिया टेरिस पर देवदत्त पटनायक से इस विषय में खुलकर बात हुई। मैंने उनसे कहा कि शायद हमारे देश में हमारे लिए विविधता ही पहली और आखिरी शर्त है, जिसका बना रहना जरूरी है। एक बार हम विकास से समझौता कर सकते हैं लेकिन अपनी विविधता पर जरा भी आंच नहीं आने दे सकते। यही हमारे देश की सबसे बड़ी खूबसूरती है जो बनी रहनी चाहिए।

प्रसिद्ध मॉयथोलोजी लेखक देवदत्त पटनायक के साथ।


इसपर देवदत्त ने भी हामी भरी। उनका कहना था कि मेरी बात सही है। इसीलिए जिन यूरोपीय देशों को वे प्रेजेंटेशन में दिखाते रहे हैं, उनके यहां के कास्ट सिस्टम और रेसिज्म की चर्चाएं कभी कम नहीं होती। और इसके विपरीत हमारे यहां विविधता को सभी सहर्ष, शिरोधार्य करते हैं।

ये अलग बात है कि कभी-कभी जानबूझकर या अंजाने में हुए विविधता को स्वीकार न करके कुछ अतिवादी उसे सीधे-सीधे संस्कृति से जोड़ देते हैं और बात राष्ट्रद्रोह के मुकदमों तक पहुंच जाती है। यह कोई सरकारी षड़यंत्र हो सकता है लेकिन देश की दैनिक आदत या स्वभाव नहीं है।

कुछ दिन पहले एक साथी ने फोन पर एक दूसरे साथी के व्यवहार की शिकायत करते हुए कह दिया कि हमारे यहां तो आजतक ऐसी बातें किसी न नहीं कीं। मैं उनकी बात ध्यान से सुनता रहा। वे शिकायत करते रहे। बात कपड़े पहनने और बैठने के अंदाज तक आ निकली। मुझसे रहा नहीं गया। मुझे कहना पड़ा कि प्रिय बंधु। अगर एक टीम के वरिष्ठ होने के नाते आप इतनी सी विविधता बर्दाश्त नहीं कर सकते तो माफ करें आप लीडर कभी नहीं बन सकते। 

हमें किसी के खुद से जरा सा अलग होने पर इतनी आपत्ति है तो हम शायद अकेले चलने के ही लायक हैं। इसलिए कृपया करके विविधता को स्वीकारना सीखिए। सामने से सवाल आया- क्या आप भी करते हैं? मैंने कहा बिल्कुल।

सच कहूं तो मैं विविधता का आनंद लेता हूं। इसीलिए मिर्जा गालिब और मिर्जापुर दोनों को पसंद करता हूं। एक व्यक्ति के रूप में अपने आसपास के सभी रंगों, भाषाओं का बराबर सम्मान करता हूं। हां, दफ्तरी कामकाज में दर्जनों लगड़पेंच चलते रहते हैं। क्योंकि हम सबके एक छत के नीचे आकर जुड़ने का साध्य हमारा काम है, सो वो सबसे पहले। उसके बाद सबका, सब तरीके से स्वागत।

यही बात मुझे भारतीय होने के नाते पूरे देश से जोड़ती है और पूरे देश को मुझसे। किसी शायर ने कहा है -

चमन में मुख्तलिफ फूलों से ही आती है रौनक,
हमीं हम हैं तो क्या हम हैं, तुम्हीं तुम हो तो क्या तुम हो...
धन्यवाद.

Tuesday, January 1, 2019

मां...एक मुकम्मल दुनिया की विदाई...

3 दिसंबर 2018... सुबह के नौ बजे। मेरी मां मुझे हमेशा के लिए छोड़कर चली गई। एक पूरी दुनिया थी जो उसके साथ ही चली गई। मेरे जीवन में ऐसा कोई पल शायद ही हो जिसमें मेरी मां नहीं होती थी। पर वो चली गई। अब...

तमाम दुनियावी संस्कार करने थे। सो किए। 14 दिन अपने पैतृक गांव रहा जहां परिवार और भाइयों ने सभी कार्यों में भरपूर सहयोग किया। उन्हीं के कारण मरणोपरांत होने वाली मेरी मां की सारी क्रियाएं संपन्न हो पाईं और 15 दिसंबर को मैं जयपुर, घर आ गया।


पर घर तो अब पहले जैसा नहीं रहा। ये तो पूरा बदल गया है। कहने को मां अपनी चारपाई पर सिमटी लेटी रहती थी। लेकिन वो तो हर जगह थी। धूप, हवा, मंदिर से आती अगरबत्ती की खूश्बू की तरह हर जगह पूरे घर में। सुबह की पहली चाय और अखबार पढ़ते वक्त चल रही बातचीत में, नहाने के लिए पड़ रही डांट में, "अभी तक फल नहीं खाए... इसीलिए तो इतना कमजोर हो गया है" वाले उलाहने में, "खाना खाते वक्त तो फोन छोड़ दिया कर" वाली सीख में, बेटे को ज्यादा डांटने पर मेरी ही खिंचाई में, ऑफिस में आए फोन और एक मिनट बात करने के बाद "आवाज नहीं आ रही, घर आके बात करना" वाली अनदेखी में और रात को अनवरत आठ साल से बिना डोरबेल बजाए बाइक या कार की आवाज सुनते ही अपने आप खुलते दरवाजे में.... मां तो हर बात में थी। और अब तो लगता है कि ये घर नहीं मां की गोद ही था... जो अब काटने को दौड़ रहा है।

यहां आने के दो-चार दिन तक तो लगता रहा कि मां कहीं गई है... आ जाएगी। क्योंकि वो अक्सर जाती थी। लेकिन लौटकर आने के लिए। इस बार वो नहीं आई। अपने हाथों से उसके सारे अंतिम कार्य कर चुका हूं लेकिन यकीन नहीं आ रहा कि मां नहीं आएगी।

रिश्तेदारों की औपचारिकताएं धीरे-धीरे पूरी हो रही हैं। परिजन लगातार फोन पर "बच्चों और पिताजी का ख्याल रखना" कि हिदायतें दे रहे हैं। लेकिन अब बहुत कुछ है जो बदल गया है... मां के नहीं रहने से बिना किसी इत्तला के मैं बड़ा हो गया हूं। क्योंकि बच्चा तो सिर्फ मां के लिए था। पिता तो कब से कहते आ रहे हैं- अपने जूते का साइज एक हो गया है... अब बेटा नहीं दोस्त है तू। लेकिन मां के लिए ऐसी कोई कहावत नहीं बनीं। मां के लिए मैं ताउम्र बच्चा ही रहा। तभी तो मिलती थीं घर से निकलते वक्त ध्यान से जाना कि हिदायत, बाहर होने पर खाना वक्त पर खा लेना की नसीहत, सर्दी में कंबल, गर्मी में ठंडा दूध, बीमार होने पर दुआ-दवा, दुनियादारी सिखाने की सलाह, पैसे बचाने की कला, हर त्योहार के सारे चाव, हर व्रत-पूजा पाठ के नियम, बच्चों की प्यारी गोद, मेरी या उनकी मां की हर डांट से आगे खड़ी मजबूत ढाल... सब मां ही तो थी।

ये तमात नसीहतें, हिदायतें, सहारा, किनारा, ढाल... सब तुम ही तो थी मां...


Thursday, November 3, 2016

मेरी एक कविता...


Monday, May 30, 2016



सिंहस्थ महाकुंभ, जैसा मैंने देखा...

शिप्रा नदी में महाकुंभ की पहली डुबकी और स्नान के बाद लौटते समय मेरे माता-पिता बच्चों को बधाई दे रहे थे। कहना था- तुम्हें ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि इतनी कम उम्र में तुम कुंभ में नहा लिए। पता नहीं क्यों मेरे अंदर ऐसी कोई फीलिंग नहीं आ रही थी।

बार-बार कुछ सवाल आ रहे थे। क्या यही वह कुंभ है जिसकी जोरदार तैयारी और व्यवस्थाओं के बारे में मैं महीनों से खबरें पढ़ रहा हूं?
क्या यही वह कुंभ है जिसके लिए रुपया पानी की तरह बहाया गया है लेकिन पानी तो अभी भी मैला ही बह रहा है।
क्या यही वह कुंभ है जिसके डिजिटल, कैश लैस, बैगर (भिखारी) लैस, पॉलिथीन लैस होने के विज्ञापन शिवराज सिंह चौहान अरसे से देते आ रहे हैं?
रामघाट

माफ कीजिए मैं सरकार या उसके इंतजामों की समीक्षा या कुंभ के अपमान का कोई मानस नहीं रखता। लेकिन जयपुर से उज्जैन की ट्रेन में बैठते ही तीन महीने पहले से कराई गई रिजरवेशन की धज्जियां उड़ने से लेकर शिप्रा के घाटों पर डुबकियों के दौरान हाथ में आ रहे गंदे कपड़ों ने बहुत विचलित किया।
इस कुंभ के लिए तो शायद पांच दिन की छुट्‌टी लेकर मई के चिलचिलाते महीने में मैं पूरे परिवार और 16 अन्य परिजनों के साथ नहीं आया था।
शिप्रा नदी
कुछ चीजें हैं जो कभी नहीं बदल सकतीं- हमारी पैदा की गई समस्याएं। जैसे गंदगी, पान की पीकें, यहां-वहां जबरन बना दिए गए मूत्रालय और शौचालय, पॉलीथिन की थैलियां, भिखारी आदि। ये हम से जनित समस्याएं हैं, जो प्रशासन के लाख चाहने से भी दूर नहीं हो सकतीं। हमें ऐसे ही रहना आता है।
ओवरहैड स्प्रिंकलर सिस्टम जिससे सड़कों का तापमान कम किया गया।

कुछ चीजें जो कभी नहीं बदलनी चाहिएं- वो अगाध श्रद्धा, जो किसी आयोजन को महाकुंभ बना सकती है। जो कंकर को शंकर बना सकती है। जो मुझ जैसे लॉजिकल भक्त को कुंभ स्नान तक ले जा सकती है। जो ये चुनौती देती है जब मन में ठान लिया है कि कुंभ में जाना ही है तो देखते हैं कौनसी ताकत है जो हमें रोक सकती है? यह अगाध श्रद्धा हमेशा बनी रहनी चाहिए। इसी की बदौलत बुरे से बुरे इंतजाम के बाद भी महाकुंभ होते रहेंगे।


कुछ चीजें जो आज ही बदलनी चाहिए- सबसे अहम-हमारी सोच। सब कुछ सरकार करती है, सरकार करेगी और नहीं करेगी तो सरकार ही बुरी। माना कि ट्रेन में रिजरवेशन की भारी बदइंतजामी के लिए सरकार जिम्मेदार है, लेकिन घाटों पर मनाही के बावजूद पॉलिथीन की थैलियां लाने वाले हम ही हैं। धर्म और पुण्य के नाम पर भंडारे लगाने वाले हम, उन भंडारों में परोसा खाना खाने वाले हम, लेकिन बचे हुए पत्तल दोने सरकार कचरा पात्र में डाले, क्या यह संभव है?

खैर इन सब बातों के अलावा बहुत सी अच्छी यादों के लिए भी मुझे कुंभ याद रहेगा। आखिर आस्था की विशाल चुंबक ने मेरे भीतर के लेशमात्र श्रद्धा के लोहे को अपनी ओर खींचा तो। 

Wednesday, May 25, 2016

क्या करें ऐसे हाई-फाई लोगों का...

दो वाकये पढ़िए...

पहला. वट्सअप का एक वीडियो. किसी युवती का जो देर रात को घर जाने के लिए कहीं से कैब हायर करती है. कैब ड्राइवर से डील होते ही वो अपने मोबाइल से उसकी व कैब की नंबर सहित कुछ फोटो लेती है. ड्राइवर पूछता है-मैडम. अापने मेरी और गाड़ी की फोटो क्यों ली? युवती जवाब देती है- बुरा मत मानना भइया. मैंने तुम्हारी और गाड़ी तस्वीरें अपने पापा को वट्सअप पर भेज दी हैं. अगर कुछ गड़बड़ करोगे तो कम से कम तुम पकड़े तो जाओगे. इसके बाद भी युवती रास्ते में आए कुछ लैंडमार्क्स की फोटो क्लिक कर रही थी. मतलब साफ था कि वो कहां-कहां तक पहुंच गई, ये लगातार उसके पापा को पता चल रहा था.
दूसरा वाकया. एक मित्र ने फेसबुक पर आया उसके किसी मित्र का फोटो दिखाया. इस फोटो में वो भाई बिजली का बिल भराने के लिए लाइन में खड़ा है. साथ में टेक्स्ट लिखा है- बिल की लाइन में पिछले 2 घंटे से...
दोनों चीजें देखकर मुझे बड़ी हैरानी हुई. पहले वाकये वाली युवती वट्सअप को हथियार की तरह इस्तेमाल करती है और दूसरे वाकये वाले महाशय इंटरनेट के एक टूल का इस्तेमाल यह बताने में कर रहा है कि वो कितना परेशान है.तकनीक एक के लिए हथियार और दूसरे के लिए बेकार. और असल में बेकार भी नहीं. बस उसका आधा-अधूरा इस्तेमाल. इस बेवकूफ को कोई समझाए कि इसी इंटरनेट से वो घर बैठे बिना परेशानी बिल भरा सकता है...
इंटरनेट के इस्तेमाल को देखें तो लगेगा कि जैसे किसी इंसान को अलादिन का चराग मिल जाए और वो उससे पकोड़े तल के लाने की ख्वाहिश कर दे.
जनवरी 2015 में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में आए मशहूर टीवी एंकर रवीश कुमार ने एक कार्यक्रम में इंटरनेट की बड़ी अच्छी व्याख्या की थी. बकौल रवीश जैसे हम इस दुनिया में व्यवहार करते हैं, वैसे ही इंटरनेट की आभासी दुनिया में. हमारी जैसी रिजर्वेशंस यहां हैं, नेट पर वैसी ही रहेंगी.
आम दुनियादारी में आपको गॉसिप, मौज-मजा, हंसी मजाक पसंद है तो आप नेट पर वही खोजेंगे. आप अच्छे पाठक हैं तो किताबें, लेखक हैं तो ब्लाग्स, सोशल बग हैं तो एफबी या ट्वीटर और कामुक टाइप के इंसान हैं तो सविता भाभी खोजेंगे. आप अंधविश्वासी हैं तो फेसबुक वट्सअप पर भी किसी आड़े-तिरछे सिंदूर लगे पत्थर को न जाने कौन से बालाजी बताकर एक लाइक/शेयर=एक आशीर्वाद जैसे जुमले गढ़ देंगे. और सिर्फ नेट ही क्यों? एक लाख किताबों से सजी लाइब्रेरी में भी हमारी सोच इसी वरीयता से चलेगी.
बस इसी वरीयता पर आधारित है हमारा इंटरनेट ज्ञान. हमने भेड़चाल की तरह दुनिया को देख-देखकर वट्सअप, फेसबुक आदि सारी चीजें सीख लीं, लेकिन आधी-अधूरी. तो नतीजा सामने है. बिजली बिल भराने की लाइन मेंं दो घंटे से खड़ा चंदूलाल वट्सअप और फेसबुक पर अपनी फोटो शेयर करता है
हाल-ए-फेसबुक देखिए... अगर फेसबुक को एक देश मानें और इसके यूजर्स को नागरिक, तो ये दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश होगा. जल्द ही हो सकता है पहला भी बन जाए. मार्क जकरबर्ग ने अपने कॉलेज फ्रेंडस से कनेक्ट होने के लिए ये मॉडल बनाया था और देखते ही देखते यूजर्स एक दूसरे को खोज-खोजकर कनेक्ट होते गए. अब हालत ये है कि लोग फेसबुक का इस्तेमाल यह बताने में कर रहे हैं कि उन्होंने ड्राइंग रूम में किस रंग के पर्दे लगाए हैं या उनका सबसे छोटा बेटा सोते हुए कैसा लगता है. रोज बनियान बदलना जरूरी हो न हो, प्रोफाइल पिक्चर जरूर बदली जानी चाहिए. अजीब लगता है ये देखकर कि कैसे विचार, अभिव्यक्ति, सूचना, संदर्भ और शेयरिंग के इतने सॉलिड मीिडयम का हमने रायता फैला दिया...
एफबी, वट्सअप या ट्वीटर कैसे हमारी जिंदगी बदल सकते हैं... इसपर बात अगली बार...