Monday, May 30, 2016



सिंहस्थ महाकुंभ, जैसा मैंने देखा...

शिप्रा नदी में महाकुंभ की पहली डुबकी और स्नान के बाद लौटते समय मेरे माता-पिता बच्चों को बधाई दे रहे थे। कहना था- तुम्हें ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि इतनी कम उम्र में तुम कुंभ में नहा लिए। पता नहीं क्यों मेरे अंदर ऐसी कोई फीलिंग नहीं आ रही थी।

बार-बार कुछ सवाल आ रहे थे। क्या यही वह कुंभ है जिसकी जोरदार तैयारी और व्यवस्थाओं के बारे में मैं महीनों से खबरें पढ़ रहा हूं?
क्या यही वह कुंभ है जिसके लिए रुपया पानी की तरह बहाया गया है लेकिन पानी तो अभी भी मैला ही बह रहा है।
क्या यही वह कुंभ है जिसके डिजिटल, कैश लैस, बैगर (भिखारी) लैस, पॉलिथीन लैस होने के विज्ञापन शिवराज सिंह चौहान अरसे से देते आ रहे हैं?
रामघाट

माफ कीजिए मैं सरकार या उसके इंतजामों की समीक्षा या कुंभ के अपमान का कोई मानस नहीं रखता। लेकिन जयपुर से उज्जैन की ट्रेन में बैठते ही तीन महीने पहले से कराई गई रिजरवेशन की धज्जियां उड़ने से लेकर शिप्रा के घाटों पर डुबकियों के दौरान हाथ में आ रहे गंदे कपड़ों ने बहुत विचलित किया।
इस कुंभ के लिए तो शायद पांच दिन की छुट्‌टी लेकर मई के चिलचिलाते महीने में मैं पूरे परिवार और 16 अन्य परिजनों के साथ नहीं आया था।
शिप्रा नदी
कुछ चीजें हैं जो कभी नहीं बदल सकतीं- हमारी पैदा की गई समस्याएं। जैसे गंदगी, पान की पीकें, यहां-वहां जबरन बना दिए गए मूत्रालय और शौचालय, पॉलीथिन की थैलियां, भिखारी आदि। ये हम से जनित समस्याएं हैं, जो प्रशासन के लाख चाहने से भी दूर नहीं हो सकतीं। हमें ऐसे ही रहना आता है।
ओवरहैड स्प्रिंकलर सिस्टम जिससे सड़कों का तापमान कम किया गया।

कुछ चीजें जो कभी नहीं बदलनी चाहिएं- वो अगाध श्रद्धा, जो किसी आयोजन को महाकुंभ बना सकती है। जो कंकर को शंकर बना सकती है। जो मुझ जैसे लॉजिकल भक्त को कुंभ स्नान तक ले जा सकती है। जो ये चुनौती देती है जब मन में ठान लिया है कि कुंभ में जाना ही है तो देखते हैं कौनसी ताकत है जो हमें रोक सकती है? यह अगाध श्रद्धा हमेशा बनी रहनी चाहिए। इसी की बदौलत बुरे से बुरे इंतजाम के बाद भी महाकुंभ होते रहेंगे।


कुछ चीजें जो आज ही बदलनी चाहिए- सबसे अहम-हमारी सोच। सब कुछ सरकार करती है, सरकार करेगी और नहीं करेगी तो सरकार ही बुरी। माना कि ट्रेन में रिजरवेशन की भारी बदइंतजामी के लिए सरकार जिम्मेदार है, लेकिन घाटों पर मनाही के बावजूद पॉलिथीन की थैलियां लाने वाले हम ही हैं। धर्म और पुण्य के नाम पर भंडारे लगाने वाले हम, उन भंडारों में परोसा खाना खाने वाले हम, लेकिन बचे हुए पत्तल दोने सरकार कचरा पात्र में डाले, क्या यह संभव है?

खैर इन सब बातों के अलावा बहुत सी अच्छी यादों के लिए भी मुझे कुंभ याद रहेगा। आखिर आस्था की विशाल चुंबक ने मेरे भीतर के लेशमात्र श्रद्धा के लोहे को अपनी ओर खींचा तो। 

0 Comments:

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home